- October 3, 2023
‘मोदी लहर’ के सामने है इस बार जातीय सर्वे और आरक्षण के रथ पर सवार विपक्ष, टक्कर कितनी जोरदार?

बिहार में 2 अक्टूबर को जातीय सर्वे के आंकड़े जारी होते ही अति पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) की राजनीति और प्रतिनिधित्व की बहस एक बार फिर से शुरू हो गई है. नीतीश सरकार ने बिहार में जो गणना के आंकड़े जारी किए है उससे इतना तय है कि अगले साल होने वाले लोकसभा के प्रचार में जातिगत सर्वे बड़ा मुद्दा बनने वाला है.
कांग्रेस भी भारतीय जनता पार्टी को घेर रही है. लेकिन, नीतीश सरकार के आंकड़े जारी करने के बाद लगभग सभी राज्यों में विपक्षी पार्टियां केंद्र सरकार से जाति गणना करवाने की मांग कर रही है.
ऐसे में इस रिपोर्ट में जानते हैं कि बिहार में जारी किया गया जातीय सर्वे का आंकड़ा लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के लिए कैसे बड़ी चुनौती साबित हो सकता है?
पहले जानते हैं बिहार में किसकी कितनी आबादी
बिहार देश का पहला जातीय सर्वे के आंकड़े जारी करने वाला राज्य बन गया है. इस सर्वे में बताया गया है कि बिहार में कुल 13 करोड़ 7 लाख 25 हजार 310 लोग हैं. इसमें से 2 करोड़ 83 लाख 44 हजार 160 परिवार हैं.
इन 13 करोड़ लोगों में सबसे ज्यादा आबादी ओबीसी की है. यहां 63% ओबीसी हैं जिनमें से 27% पिछड़ा वर्ग और 36% अत्यंत पिछड़ा वर्ग है. वहीं 14.26% आबादी यादवों की है, 3.65% ब्राह्मण और 3.45% आबादी राजपूत (ठाकुर) की है.
इन जातियों में सबसे कम संख्या कायस्थों की है. सर्वे के अनुसार प्रदेश में कायस्थों की आबादी केवल 0.60% है. इसके बाद एससी वर्ग की 19 प्रतिशत आबादी है.
देश की तरक्की के लिए क्यों जरूरी है जातिगत सर्वे
राजनीतिक विश्लेषक और प्रोफेसर एस मुखर्जी ने एबीपी ने एबीपी न्यूज से बातचीत में कहते हैं, ‘हिंदुस्तान में जाति और वर्ण में एक संबंध है इसको आप निकाल नहीं सकते. आपको इसे मान्यता देना ही पड़ेगा. मुझे लगता है कि जाति सर्वे एक बहुत अच्छा आधार हो सकता है कि हम 70 साल के लोकतंत्र में कहां और कितना आगे बढ़े हैं और जो बहुजन समाज को क्या मिला’.
वहीं जेएनयू के प्रोफेसर विवेक कुमार श्रीवास्तव ने एबीपी से बातचीत में कहते हैं, ‘ आज अगर देश के एक राज्य में सर्वे पूरी हुई है तो हम सामाजिक न्याय उनको उनकी जनसंख्या के अनुपात में दे सकते हैं. ये देश के लिए एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी. दूसरा राजनीतिक रूप में अगर लालू यादव और नीतीश कुमार सर्वे कराने के बाद उन समाजों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में सामाजिक न्याय की जो भी पॉलिसी बनी है, उसका अगर लाभ नहीं दे पाएंगे तो मुझे लगता है कि जनता उनको कभी माफ नहीं कर पाएगी.
भारतीय जानता पार्टी के लिए क्यों है बड़ी चुनौती
हिंदी हार्टलैंड में ओबीसी वोटरों का समर्थन मिलना बेहद जरूरी है क्योंकि इन राज्यों लोकसभा की कुल 225 सीटें हैं. भारतीय जनता पार्टी और उसके गठबंधन को साल 2019 में इन 225 सीटों में से 203 सीटें मिली थीं. सपा-बसपा को 15 और बाकी 7 सीटें कांग्रेस को मिली थीं.
वहीं देश के अलग-अलग राज्यों में ओबीसी और दलित नेता लंबे समय से आबादी के अनुपात में आरक्षण की मांग कर रहे हैं. ऐसे में लोकसभा चुनाव से एक साल पहले बिहार में जारी किए गए जातिवार सर्वे के आंकड़ों ने ओबीसी और दलित नेताओं की इस मांग को ठोस आधार दे दिया है.
बिहार में हुए सर्वे के आंकड़ों के अनुसार सवर्णों की आबादी केवल 15 प्रतिशत से थोड़ी ज्यादा है. वहीं दूसरी तरफ ओबीसी और अति पिछड़ा वर्ग की कुल आबादी का 63 प्रतिशत है. अब ऐसे चुनाव से पहले राज्य में आबादी के मुताबिक आरक्षण बढ़ाने की मांग जोर पकड़ सकती है. संख्या बल के अनुसार यही बड़ा वोट बैंक भी है.
बिहार में अगर आरक्षण का मुद्दा जोर पकड़ता है तो भारतीय जनता पार्टी को तभी जीत मिल पाएगी जब उसे ऊंची जातियों के साथ ही और एनडीए में शामिल में छोटी-छोटी जातियों की राजनीति करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के वोटरों का पूरा साथ मिले जो कि किसी चमत्कार से कम नहीं होगा.
विपक्ष के निशाने पर ओबीसी वोट
पटना यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर विकास गुप्ता ने एबीपी से बातचीत में कहा, ‘जातीय सर्वे के तार आरक्षण और ओबीसी वोट बैंक से जुड़े हुए हैं. विपक्षी पार्टियों की मांग है कि देश में जितनी जिसकी संख्या है आरक्षण में भी उतनी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए. साल 2024 लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी पार्टियों ने केंद्र सरकार से मांग रखी कि आरक्षण की सीमा जातीय सर्वे के हिसाब से तय होने चाहिए और आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ाई जानी चाहिए. इस लड़ाई में विपक्ष के निशाने पर ओबीसी वोट बैंक है. हर सर्वे में अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जनजाति के आंकड़े दिए जाते हैं. ऐसे में अगर भारत में ओबीसी की जनसंख्या ज्यादा सामने आई तो विपक्ष ओबीसी आरक्षण को मौजूदा 27 फीसदी से बढ़ाने की मांग करेगा.’
मौजूदा समय में भारतीय जनता पार्टी को समर्थन दे रहे ओबीसी मतदाता
सीएसडीएस लोकनीति ने पिछले दो लोकसभा चुनाव के मतदाताओं का सर्वे किया था. जिसके मुताबिक देश के ओबीसी वोट का समर्थन भारतीय जनता पार्टी को मिल रहा है. साल 2014 में हुए लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 34 प्रतिशत ओबीसी वोट मिले थे. वहीं कांग्रेस को सिर्फ 15 फीसदी ओबीसी मतदाताओं ने वोट दिया था. जबकि पांच साल बाद यानी 2019 लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को 44 प्रतिशत और कांग्रेस को 15 फीसदी ओबीसी वोट मिले थे.
अब जातिगत सर्वे के जरिए विपक्ष इन्हीं ओबीसी वोटरों को साधना चाहती है. क्योंकि विपक्ष के तर्क के अनुसार बिहार में सर्वे के बाद 27% पिछड़ा वर्ग और 36% अत्यंत पिछड़ा वर्ग को मिलाकर ओबीसी को कुल 63 प्रतिशत आरक्षण मिलना चाहिए.
लोकसभा चुनाव पर किस तरह असर डालेगा जातिगत सर्वे
पत्रकार अभय दुबे ने एबीपी से बातचीत करते हुए कहा कि बिहार में हुए जातिगत सर्वे का प्रभाव लोकसभा चुनाव पर पड़ते हुए मुझे तो साफ नजर आ रहा है. दरअसल पिछले दो लोकसभा चुनाव और अलग अलग राज्यों के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को कई बार ये कहते सुना गया है कि भारत की जनता जाति की सीमाओं को लांघते हुए मोदी जी और भारतीय जनता पार्टी को सपोर्ट कर रही है. अब जैसे ही बिहार में इस सर्वे के आंकड़े आए हैं आप महसूस कर सकते हैं कि भारतीय जनता पार्टी की दिक्कत कितनी बढ़ जाएगी. जैसे-जैसे अन्य प्रदेशों में सर्वे होगी, बीजेपी की दिक्कतें भी उतनी ही बढ़ती जाएगी.
दुबे आगे कहते हैं- बिहार को ही ले लीजिए इस सर्वे के बाद राज्य में किस जाति की कितनी संख्या है ये निकलकर सामने आ गया है. बिहार के संदर्भ में भारतीय जनता पार्टी को ब्राह्मण-बनिया पार्टी कहा जाता है. वहां पर ओबीसी और कमजोर जातियां दूसरे दलों के मुताबिक भारतीय जनता पार्टी के साथ अपेक्षाकृत कम हैं और इस सर्वे के बाद बीजेपी को और भी मुश्किल होंगी.
नीतीश कुमार के लिए ये सर्वे क्यों जरूरी
बिहार में पिछले विधानसभा चुनाव में भले ही जेडीयू और भारतीय जनता पार्टी गठबंधन ने जीत हासिल की थी, लेकिन 2015 के चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी 71 सीटों से गिरकर 43 पर आ गई, वहीं बीजेपी को 74 सीटें मिली. ऐसे में राज्य में नीतीश की घटती ताकत के बीच जाति सर्वे के आंकड़े जारी करना काफी महत्वपूर्ण कदम है.
इस सर्वे के आंकड़े जारी किए जारी होने के बाद बिहार में नीतीश और जेडीयू का प्रभाव भारतीय जनता पार्टी से ज्यादा हो सकता है. हालांकि, इस बात में भी सच्चाई है कि आने वाले लोकसभा चुनाव सिर्फ जाति सर्वे पर नहीं लड़ें जाएंगे बल्कि महंगाई और बेरोजगारी भी एक बड़ा मुद्दा होगा.
INDIA गठबंधन में बढ़ा बिहार के सीएम नीतीश कुमार का कद
इसी साल के जून महीने में पटना में पहली बार हुई विपक्षी गठबंधन की बैठक के वक्त नीतीश कुमार ने जाति सर्वे का मुद्दा उठाते हुए कहा था कि जाति सर्वे गठबंधन के प्रमुख एजेंडे में से होना चाहिए. उन्होंने इसी बैठक में कहा था कि संसदीय चुनाव जीतने पर गठबंधन को जाति सर्वे करवाने और उसे लागू करने का वादा करना चाहिए, लेकिन तृणमूल कांग्रेस ने इस पर आपत्ति दर्ज की थी.
अब नीतीश कुमार ने अपने प्रदेश में जातीय गणना के आंकड़े जारी कर दिए हैं तो ये बात भी सच है कि इस सर्वे का श्रेय कांग्रेस समेत कई विपक्षी पार्टियां लेने की कोशिश करेंगी.
सुप्रीम कोर्ट में जातिगत सर्वे के खिलाफ दायर की गई याचिका
बिहार में जाति सर्वे को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है. जिसमें याचिकाकर्ता ने इसका विरोध किया है. सुप्रीम कोर्ट को याचिकाकर्ता की तरफ से बताया गया कि बिहार सरकार ने जाति सर्वेक्षण डेटा प्रकाशित कर दिया है और इस मामले की जल्द सुनवाई की जानी चाहिए. दरअसल, बिहार सरकार की तरफ से पहले कहा गया कि सर्वे से जुड़ा आंकड़ा प्रकाशित नहीं किया गया है. इसके बाद इसे प्रकाशित कर दिया गया जिसे लेकर एक याचिकाकर्ता ने कोर्ट का दरवाजा खटखटा दिया. हालांकि, कोर्ट ने यह स्पष्ट रूप से कहा कि वह अभी इस मामले पर कोई टिप्पणी नहीं करेगा. 6 अक्टूबर को मामले की सुनवाई होगी. उसी समय दलील सुनी जाएगी. वहीं दूसरी तरफ बिहार के मुख्यमंत्री और जेडीयू नेता नीतीश कुमार ने आज यानी 3 अक्टूबर को सर्वदलीय बैठक बुलाई है. इस बैठक में 9 पार्टियों के नेताओं को आमंत्रित किया गया है. यह बैठक 3:30 बजे सीएम सचिवालय के संवाद कक्ष में होनी है. जिसमें सभी पार्टियों के नेताओं को जाति आधारित गणना के आंकड़ों के बारे में जानकारी दी जाएगी.